संदेह

संदेह

संदेह तुझे तेरे अपनों से दे बिछड़ा
छीन लेता तेरे ह्रदय का चैन
छोड़ जाती निंदिया नयनो को
हर क्षण करता तुझे बेचैन
केवल एक भावना सन्देह  की जब
तेरे मन घर कर जाती है
दूर कर देती तेरे अंतर्मन की प्रसन्नता को
तुझे क्रूर कर देती है
माना साधारण मानव है हम
मन के भावों पर ज़ोर नहीं
गर इसमें प्रेम समाता है
ईर्ष्या और संदेह भी पनपता यहीं
जिससे सर्वाधिक करते प्रेम
गर ना पूरी कर पाया उम्मीदों को
संदेह से भर जाता ह्रदय
चाहता मन उसे चोट पहुँचाने को
संदेह ना केवल दूजे को
स्वयं हमें भी नुक्सान पहुँचता है
तन मन को कर देता बोझिल सा
इक अगन से हमें जलाता है
ना पनपने दे भाव सन्देह  का तू अंतर्मन में
क्योंकि वह तो ईश्वर का घर है
प्रेम और अपनत्व के भावों से कर पावन मन को
गर जीवन को सफल बनाना है

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

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