श्यामा एक -एक डिब्बा खोल के देख रही थी कि किसी डिब्बे में तो कुछ मिल जाए की राजू को खिला दे भूख से रोये जा रहे था।
रमिया उसका भाई अभी मजदूरी करके लौटा ही था कि वह उससे कहने लगी भैया कुछ पैसा दो समान ले आऊं बचवा रोये पड़ा है।
रमिया बोलने लगा घर में घुसा नहीं कि पैसा चाहिए कभी एक ग्लास पानी भी लाकर नहीं देगी।
लाला की दुकान से उधार ले आती वह बोली मैं नहीं जाती उसकी दुकान पर वह बुरी नजर से तकता है। रमिया का खून खोल रहा था कि अभी जाके उसकी खबर ले लेकिन एक लाचार आदमी क्या कर सकता है।
वह कुछ सोचते हुए बोला और तेरी भौजाई का बुखार उतरा की नहीं ? वह बोली राम ही मालिक है दो दिन से निढाल पड़ी है। कुछ बोल भी नहीं रही है।
रमिया की आंख में आँसू आ गए बोलने लगा कहाँ से पैसे लाऊं दिनभर काम करने पर उधारी ही चुका पाता हूँ दवा में सब उठ जा रहा है। ले सुबह की गुड़ की ढिल्ली रखी है ये ही राजू को खिला दे और मुझे लौटे में पानी दे दे।
दूसरे दिन वह काम के लिए निकला आज़ादी के जश्न की तैयारी चल रही थी आज काम भी मुश्किल से मिला मुनीम ने भी अपना हिस्सा काटकर मेहनताना दिया। कुछ आगे बढ़ा ही था कि उसका साथी बल्लू मिल गया वह अपने पैसे मांगने लगा था उसको देकर हाथ में 10 रुपया बचा था। वह एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ता रहा था। कहीं दूर गाना बज रहा था ..
*"हर कर्म अपना करेंगे ऐ वतन तेरे लिये, दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिये*" ...
*सामने से नेताजी का जुलूस आ रहा था शहीदों को "श्रद्धांजलि" देकर लौट रहे थे। जो कभी कह गए थे ।तुम सब की पुकार पर तुम्हारे सुख दुख में शामिल रहूंगा ।,*
*वह बोल रहा था ये आज़ाद हैं हम कहाँ, भूख का दर्द ये क्या जाने* !
*वह अभी उठ ही रहा था कि श्यामा बदहवास सी दौडी पुकारे चली आ रही थी बोल पड़ी भैया भौजाई नहीं रही*!
"आज़ादी के मायने" बदल चुके थे। वह बोल रहा था एक चिंता खत्म हुई मैं कुछ आज़ाद हो गया।
घर पहुँच कर लोगों से कह रहा था 10 रुपये में कफ़न आ जाए तो ले आओ। उधर श्यामा का राजू प्लास्टिक के बने तिरंगे पर लड्डू खाते कह रहा था ये आज़ादी का दिन रोज- रोज क्यों नहीं आता माँ !सब एक दूसरे का मुंह देख कर कह रहे थे ।
*ये कैसी आज़ादी*
*सबकी नजर में आज़ादी के मायने बदल रहे थे उधर रमिया शून्य में निहारे जा रहा था*।
सविता गुप्ता
प्रयागराज✍️
मेरी स्वरचित रचना है।
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