मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं

"मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं"
पंक्तियाँ ये तुम्हारी मृत्यु का भी उपहास उड़ाती हैं,
शौर्य का नाम दूसरा अटल बताती हैं ।
"खेतों मे बारूदी गंध
टूट गये नानक के छंद "
भारत अगर धर्म निरपेक्ष नहीं तो भारत "भारत " नहीं,
राजनीति की विसात पर समीकरण नये लिख़ गये ।
नेहरू जी को भारत माता का सबसे क़ीमती सपूत, मानवता का सेवक कह गये
 मतभेद हो मनभेद न हो
कुछ इस तरह बात सबको कह गये ।
"कटार कलेज़े में दड़ गईं
दूध में दरार पड़ गईं "
सदा ए सरहद तुम्हारी,
प्रेम की लौ में इतिहास कितने रच गईं ।
"भरी दुपहरी मे अँधियारा 
सूरज परछाई से हारा"
"अंतरतम का नेह निचोड़े
बुझी हुई बाती सुलगाएं 
आओ फिर से दिया जलाए"
मन की उजड़ी बस्ती में भी अंकुर रोशनी कर गये ।
"परिस्थितियों से इस तरह लड़े
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े"
विचार तुम्हारे मृत में भी प्राण फूंकते,
निराशा को धता बताते
आशाओं को रोपते ।
होने, न होने का क्रम इसी तरह चलता रहेगा
मैं हूँ, मैं रहूँगा ये भ्रम सदा पलता रहेगा ।
कितनी आसानी से तुमने मिट्टी को मिट्टी कह दिया, 
गुरुर इस तन का पल मे तुमने तोड़ दिया
"ये भी सही
वो भी सही
वरदान नहीं मागूंगा
हो जो भी सही पर हार नहीं मानूंगा" 
 भारत रत्न तुम चुनौती
काल को भी दे गये,
"मैं मरने से नही, बदनामी से डरता हूँ"
 पर सत्ता के गलियारों में,
दुनियां के रंग मंच पर,
संबंधो की परिभाषा में,
मर्यादित कहाँ अटल
 अब दूसरा है?
"अंतिम जय का वज्र बनाने
नव दाधीचि हड्डीयाँ गलाएं "
इन्द्रियों के कपाट खोले,
वाणी का वो ओज तुम्हारा।
चेतना के मार्ग में ध्वजा फहरा गये,
वसुंधरा भी गर्वित हो गईं
पाकर तुमसे लाल को...

नेहा अजीज़

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