साहित्य समाज का दर्पण है


कवयित्री डॉ. रेखा मंडलोई “गंगा" यह मेरा परम सौभाग्य है कि परम आदरणीय श्री प्रभु त्रिवेदी जी ने मेरी कृति काव्य गंगा को पढ़कर आशीर्वाद स्वरूप पुस्तक समीक्षा प्रेषित की। दिल से ढेर सारा धन्यवाद महोदय आपका आशीर्वाद इसी तरह बना रहे, यही ईश्वर से प्रार्थना है। आप सभी के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है पुस्तक समीक्षा:-

 काव्य गंगा – कवयित्री डॉ. रेखा मंडलोई “गंगा

– श्री प्रभु त्रिवेदी ( समीक्षक,वरिष्ठ साहित्यकार )

साहित्य समाज का दर्पण है , कभी कहा जाता था। आज साहित्य समाज की धड़कन है। गद्य और पद्य साहित्य की दोनों विधाओं का अपना – अपना महत्त्व सर्वविदित है। लेकिन पद्य का अपना आनुभूतिक अनुवाद , लयात्मक लालित्य और दीर्घकालिक दाक्षिण्य हर किसी को आकर्षित करता है। यह आकर्षण ही रचना को कंठस्थ और हृध्यस्थ करवा देता है। फिर चाहे वह सपाट बयानी हो, या छान्दसिक कसौटी पर कसी गई शुद्ध रचनाएं। इसीलिए हमें सूर, तुलसी, कबीर, रहीम याद रहते है। विगत दिनों कवयित्री डॉ. रेखा मंडलोई “गंगा” की द्वितीय कृति ‘काव्य -गंगा’ प्रकाशित हुई है। इससे पूर्व ‘निमाड़ के रंग लोककथाओं के संग’ कृति के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में प्रवेश किया है। यों तो समवेत प्रकाशनों में वर्षों से अनेक रचनाएँ स्थान पाती रही हैं। लेकिन समग्र रूप से वैचारिक अभिव्यक्ति ‘काव्य-गंगा’ के माध्यम से समाजोन्मुख हुई। कबीर कहते हैं –

‘कबिरा ये घर खाला का घर नाहीं। सीस उतारौं भुई धरौं, सो पैठों घर माहि।।‘

 बस यही लगन, यही त्याग और यही समर्पण किसी भी व्यक्ति को साहित्य से जोड़ता है। समीक्ष्य कृति ‘काव्य -गंगा’ की कवयित्री के मन में एक अकुलाहट है, समाज की विषमताओं के प्रति एक आक्रोश है और वह भावावेश अभिव्यक्ति चाहता है। ताकि मानवीय जीवन को सहजता, सरलता के साथ सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा जा सके और जीवन मूल्यों को क्षरण से बचाया जा सके। यह चिंता स्वाभाविक भी है और नारी – मन के कारण अत्यधिक संवेदना से परिपूर्ण भी। यही कारण है कि उन्होंने अपनी कृति का समर्पण गुरु और मां के नाम किया है। कवयित्री आत्मकथ्य में स्वीकारती हैं कि यह सारस्वत कर्म उन्हें सामाजिक ऋण से उऋण करेगा। उन्होंने देवताओं, महापुरुषों, तीज – त्योहारों, सामाजिक-रिश्तों, पारिवारिक-उत्सवों, होली-दीवाली, देश-विदेश और कोरोना जैसी महामारी पर भी अपने विचारों को प्रस्तुत कृति में अभिव्यक्ति दी है। श्रद्धा और आस्था की एक आत्मीय तरंग-सी इन रचनाओं के बीच अनुभव होती है। जैसे मन के समुद्र में वैचारिक ज्वार उठा हो और वह परिणत होना चाहता हो। उस उच्छवास को ठोर चाहिए था, जो सृजनात्मकता में मिला है, ऐसा प्रतीत होता है। वे लिखती हैं-

‘क्रौंच पक्षी के व्यथित मन का करुण क्रंदन है कविता।

वेदों की ऋचाओं में प्रवाहित भाव धारा का नाम है कविता।।‘

सच भी है। महर्षि वेद व्यास से लेकर प्रकृति प्रेमी सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं में करुणा ही काव्य का उदगम रही है। तभी तो पंत जी को कहना पड़ा-

 ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।  

निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।‘

अपने समकाल को जीते हुए और प्रेरणा देते हुए कवयित्री ने लिखा है –

‘आज का दौर जो कठिनाइयों से है परिपूर्ण।

बहुत जल्द ही इससे भी निजात पाएगा। ‘

भाषा की दृष्टि से आम बोलचाल के सरल शब्दों ने कृति को सर्वगाह्य बनाया है। 100 पृष्ठ की यह कृति मात्र 199/- रुपये मूल्य की है। कवयित्री डॉ. रेखा मण्डलोई “गंगा ” की यह सृजन यात्रा इसी तरह आकाश छूती रहे और वे साहित्य समाज में समादृत हों, इन्हीं कामनाओं के साथ। इति।

१२-०१-२२ प्रभु त्रिवेदी

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