बह्रे-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम,
वक़्त चलता रहा मैं खड़ी रह गई,
ज़िंदगी भी घड़ी दो घड़ी रह गई!
इश्क़ कैसे करूँ ये हुनर ही नहीं,
हौसला ही न था मैं डरी रह गई!
इब्तिदा-ए-सफ़र हम भटकते रहे,
मंज़िलें-साँस भी आखरी रह गई!
मौत को मात दे कर जिए जा रहे,
मौत भी सामने जब खड़ी रह गई!
बे-ख़ुदी में चले जा रहे थे किधर,
अनकही बात में क्यूँ अड़ी रह गई!
बेज़बां कह रहा है ग़ज़ल ऐ"अदी"
गीत था जो कभी शाइरी रह गई!
अदीक्षा देवांगन"अदी"
बलरामपुर(छत्तीसगढ़)
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