सरस्वती पुत्रों का तुम एक नया संसार रचो ।।
जीवन की कुलिषत इच्छाओं का अंधकार बड़ा ।
भर दो अमृत जीवन में मां मैं तेरे द्वार खड़ा ।।
तेरा पुत्र जीवन के अंधकार में पल पल खो रहा ।।
तेरे दीप का प्रकाश ही मन में जोत जगा रहा ।।
काव्य मंजूषा के नित नये पुष्प तुझको अर्पित करता ।
सागर मंथन कर रोज विश्व में काव्य अमृत भरता ।।
अपने पुत्रों और पुत्रियों को नयी सीख रोज तू देती है ।
तुझसे ही ज्ञान प्राप्त कर नित नई खोज पूरी होती है ।।
हे वीणा वादिनि भक्त वत्सला मन में ओज तुम भर दो ।
करुं अर्चन काव्य पुष्पों से मन में उमंग कुछ ऐसी भर दो ।।
हे हंस वाहिनी माता मुझको हंस अपना तुम बना लेना ।
रहूं संग हर पल तेरे, कुछ ऐसी कृपा बरसा देना ।।
जीवन का हर सुख दुख काव्य का सुन्दर सार बनें ।
तेरे पुत्रों के पद चिन्हों पर चलकर एक नया संसार बनें ।।
जीवन है जैसे उत्थान पतन के पर्वत की चढाईयों जैसा ।
सागर तल के अप्रतिम दुर्गम बड़ी बड़ी गहराइयों जैसा ।।
शिव रुप में हलाहल का रोज पान मैं किया करता ।
विष्णु बनकर जगपालन हेतु उपचार मैं किया करता ।।
हूं ब्रह्म कमल मैं नित नया विष्णु नाभि में खिला करता ।
ब्रम्हा की ब्रह्माणी बनकर काव्य श्रंगार किया करता ।
शिवा शक्ति का है वरदान मुझे नित अर्चन किया करता ।।
तेरा भक्त तेरे चरणों में नित नये काव्य मंजूषा चढ़ाया करता ।।
हे वीणा वादिनि हंसवाहिनी मन में तेज नया तुम भर दो ।।
बहा दूं विश्व में काव्य गंगा सितारों से आंचल मेरा भर दो ।।
जय हिन्द जय भारत वंदेमातरम
चन्द्र शेखर मार्कण्डेय
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कविता