इक चाहत की हसरत हैं हमारी।
इक मुस्कान हो गुल से भी प्यारी।
लगता हैं.....
हमे चढ़ा हैं इश्क-ए-हुस्न का ख़ुमार।
के इक हसीन-ए-मुस्कान के हो दीदार।
बस उस रब पर ही हैं अब एतबार।
के ना जाने किस पल में.....
होगा इक हसीन-ए-मुस्कान से इज़हार।
क्यों उल्फत सी उल्फत के लिए दिल हैं बेकरार ?
क्यों फिर दिल बेचैन होने लगा हैं इस बार ?
इक उल्फत की चाहत हैं ज़िन्दगी में।
कभी तो उल्फत की इनायत होगी ज़िन्दगी में।
क्यों मेरे तन-ए-दिल में मदहोशी की ये आग लगी ?
जैसे उल्फत की मय भरी ये शमा जलने लगी।
"बाबू" उल्फत-ए-मुस्कान मुझे इतना मदहोश कर गई।
के मेरे तसव्वुर-ए-कलम ने ये इक नज़्म ही लिख गई।
✍️ बाबू भंडारी. "हमनवा" बल्लारपुर (महाराष्ट्र)
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