कितना भी तुम ढूंढ लो चाहे , मिलता नहीं है छोर

कितना भी तुम ढूंढ लो चाहे , मिलता नहीं है छोर
दृष्टि गोचर होती नहीं है , अदृश प्रेम की डोर 

प्रेम सुधा जो पी लेता है और न कुछ भी सुहाए
बन मतवाला घूमे चहुँदिस होश नहीं फिर आए
रजनी , संध्या ना जाने वो ना समझे वो भोर

प्रेम की शक्ति अद्भूत होती , इसकी ना कोई सीमा
कहता इसको अमृत कोई , कहता विष कोई धीमा
प्रेम को केवल लूट सके है , जो होगा चितचोर

प्रेम से उत्पन्न सकल जगत है , प्रेम ही प्रेम अधारा
प्रेम हृदय हुं होत तो लगता बैरी भी है प्यारा
राह चलो गुस्ताख वही तुम , प्रेम मिले जिस ओर

     
    गुस्ताख हिन्दुस्तानी
( बलजीत सिंह सारसर )
            दिल्ली

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