आओ ! मन की बात करते हैं
शाम कुछ घड़ी साथ बैठते हैं
मौसम बीत गए ; बैठकें है खाली
चाय गिलास के आवाजों के बीच
आओ! बीते दिनों को याद करते हैं।
क्यों अहंकार पालें न जाने कब ?
मंच खाली करने की मिले संदेशा
अपनों साथ बैठ हास - परिहास करते हैं।
कुर्सियों पर धूल की परतें है जमी
बैठ कर उन्हें कपड़ों से साफ करते हैं।
साल बीत गए बैठकों में
हँसी सुनायी नही दी
सन्नाटे ने अपनी जगह बना ली है शायद !
बीते दिनों को याद कर शोर करते हैं।
चाय से मिलती गर्म अहसासों साथ
अखबार में छपी घटनाओं
देश के हालातों के बीच
स्वयं की भूमिका तैयार करते हैं।
पर कदम वापस मोड़ लेते
बढ़ती जिम्मेदारी को याद कर।
आओ ! मन की बात करते हैं।
जीवन अनुभव सहेज रही है
अपनों से बिछड़ते हुए
अदृश्य ड़र के साए में आज
अपनों को अपलक हर रोज ढूँढते हैं
आओ! कुछ मन की बात करते हैं।
✒️ विजय पंडा छत्तीसगढ़
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कविता