तुम कहां साथ निभाती हो
तुम कहां साथ निभाती हो
में अकेला ही सब कर,लूंगा
यह कह कह कर रोज तुम,
जब मेरा दिल दुखाते हो प्रिय
मैं सुध बुध सब खो जाती हूं !
यही सोचती रहती हूं कि सच
क्या में कुछ समझ न पाती हूं ,
तुम्हारे शब्द छलकते है और
में यही सोच बस नीर बहाती हूं!
कभी कहीं अकेले में तुम जब ,
मुझे न पाओगे तब शायद यह
छोटी सी बात समझ पाओगे !
तुम्हारे हर फैसले पर में अपनी
सहमति का ठप्पा लगती हूं ,
तुम्हें सुख देने हेतु में अपनी
हर इच्छा मन में दबाती हूं,
घर बैठे बैठे ही हर काम में
तुम्हारे संग में हाथ बटाती हूं !
घर की साफ सफाई से लेकर
सारे काम खुद ही निपटाती हूं!
प्रिय तुम्हारी पसंद से ही तो में
नित नए नए पकवान पकाती हूं !
तुम्हारी हर खुशी और हर गम
को मैं अपने नाम लिखाती हूं ।।
कभी तुम सोचना मेरे लिए भी ,
तब शायद तुम समझ पाओगे मुझे
एक ग्रहणी होने की हर ज़िम्मेदारी
खुश होकर में सदैव ही निभाती हूं
और अपनी छोटी बड़ी हार खुशी में ,
तुम्हारी बातों में ही खोज लाती हूं!
जैसे भी हालत हो तुम्हें देख सदैव
मुस्कुराती हूं तुम्हारा साथ निभाती हुं।।
" मैं अकेला सब ही सब कर लूंगा "
बस तुम्हारी यह बात समझ नहीं पाती हूं ।।
प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर मध्य प्रदेश
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कविता