मैं गीत प्यार के गाता हूं

श्रंगार रस

मैं गीत प्यार के गाता हूँ

मैं गीत प्यार के  गाता हूँ  ।
जहाँ जहाँ जब जब जाता सब , सहज सरस पाता हूँ ।

नफरत से न नेह निभाया ,  नहीं द्रोह करना मुझे आया ।
सबको प्रेम प्रेम अर्पण कर , प्रतिफल प्रेम प्रेम ही पाया ।।
स्वर और ताल जाल न उलझा ,  खुशियों का मैं नाता हूँ ।...................॥१॥

पर्वत पास पहुंच ये पाया , प्रति ध्वनि लौट कर्ण में आया ।
धरती पै जब जो कुछ बोया, प्रगटा फसल रूप वही पाया ।।
जैसी मुख आकृति मैं करता ,  वहीं दर्पण में पाता हूँ ।........................॥२॥

प्रेम एक अनमोल धरा पर ,  स्व सरवोर और को कर तर ।
नेम एक यही प्रेम प्रेम कर,      इस सृष्टि का  श्रेष्ठ वहीं नर ।
बात सभी से करत प्रेम की ,     सिर आशीशें पाता हूँ ।............................॥४॥

प्रेम नहीं बागों में फलता , नहीं किसी बाजार में मिलता ।
सांच दिया वैराग्य की बाती , प्रेमतेल का दीपक  जलता ।।
प्रेम नारायण से करता हूँ ,   स्वयं को सब में पाता हूँ।...................................॥५॥

राजेश तिवारी मक्खन
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मुक्त

तुम्हारी याद में मैंने ,जो दिन अब तक गुजारे है ।
चले   आओ   चले    आओ  , सनम तेरे सहारे है ।
प्यारे परदेश जाकर के , वही के हो गये लगता ,
अश्क इन आखों से बहते , लगत जैसे पनारे है ।१

सत्य कह करके हारो तो , स्वयं जीता समझ लेना ।
ध्यान रखना सदा प्यारे , किसी को धोखा न देना ।।
असत्य के बल से यदि जीते , जीते तो व्यर्थ जीते ,
आचरण में यदि अच्छे , जगत अच्छा समझ लेना ।।२

राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी उ प्र

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